कहने, सुनने, को तो बहुत कुछ मिलता है लेकिन जब हम ये कहें की हम आपके लिए जान अर्थात् बलिदान दे देंगे या फिर सुनने को ये मिले की उसने उसके लिए बलिदान दिया है तो ये सब सुनी~सुनाई कहानी सी लगती है। लेकिन ये कहानी आज भारतवर्ष मे हकीकत होता हुआ दिखाई दे रहा है। अभी कुछ ही दिन तो हुआ तमिलनाडु चुनाव हुए जहां डीएमके की सरकार बनी हुई है और तमिलनाडु के करूर जिला से ये खबरे मिली है की उलगुनाथ नामक व्यक्ति ने डीएमके की सरकार बनने के लिए मन्नत मांगे थे की जब तमिलनाडु में डीएमके की सरकार बन जायेगी तो मै उलगुनाथ बलिदान दे दूंगा और हुआ भी वही उधर डीएमके की सरकार बनती है तो इधर उलगुनाथ भी अपना बलिदान अमावस्या आषाढ़ को अपना बलिदान दे देते है। फिर बिहार मे भी एक व्यक्ति है नीतीश की सरकार जितनी बार बने वो उतने बार अपना एक~एक उंगलियां का चढ़ावा चढ़ाते है। क्या ये सब एक भारतवर्ष जैसा लोकतन्त्र के लिए सही है जी नही कतई नही ये राजतंत्र का जड़ है की लोग अपने झूठी शान और अपने राजा के लिए मर मिटने के लिए तैयार हो जाते थे। जबकि आज का भारत या विश्व को ही ले लीजिए हम सब एक अत्याआधुनिक युग मे जी रहे है सबके पास कोई ना कोई साधन है जिसके सहारे वो जी सके और विकास कर सके फिर इन सब बलिदान पर कोई रोक नहीं ये अनुच्छेद13 का विरोध भी करता है ये तो कोई निजता का अधिकार के अन्तर्गत अनुच्छेद19 में भी नही आता है फिर इस बात को राजनीतिक पार्टी के लोग समझ क्यों नहीं पाते है बल्कि इसको एजेंडा बनाकर अपना प्रचार~प्रसार भी करते है और इसको लोकतन्त्र का मसीहा बनाकर अपना पार्टी पब्लिक फिगर बनाते है। इन सभी व्यवहारों में सुधार की जरूरत है और राजनीतिक पार्टियों को भी अपने मेनिफेस्टो मे इस बात की जिक्र करने की जरूरत है की पार्टी की हार हो या जीत किसी के भी लॉ एंड ऑर्डर को हाथ में नहीं लेना है और नही किसी को जान देने की जरूरत है। आखिर क्या ये सच है की आज हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहे है जहां,सभी धर्म, और जाति, के लोग अपने नीजी लाभ को देख कर वोट कर रहे है , जहां पर एक पार्टी की पंद्रह साल सरकार चलती हो फिर वो कोई लोकतान्त्रिक व्यवस्था तो नही है। बल्कि एक ही पार्टी की सरकार 15~20 साल रहना ये साबित करता है की कुछ, लोग , अधिकारी, धर्म और जाति, उन पार्टी के ही लोग है जिस समीकरण पर सरकार बनती है ये कतई लोकतंत्र नहीं है। ये नीजि विचार बिहार के युवा पत्रकार संजय कुमार का है।