ये सरकार जनता के लिए नहीं, अपने चुनावी पोस्टर और भाषण के लिए फैसले लेती है. इसलिए इनमें सच कहने का साहस नहीं है.
किसानों के मामले में सरकार साफ झूठ बोल रही है. नियमों में जो बदलाव किए गए हैं, वह सीधे तौर पर कृषि क्षेत्र का निजीकरण है. विरोध कर रहे किसान संगठन यह समझ भी रहे हैं और खुलकर कह रहे हैं.
लेकिन सरकार में ये कहने की हिम्मत नहीं है. सरकार चाशनी चढ़ाकर बोल रही है कि किसान आजाद हो गया, किसान मालामाल हो जाएगा, वगैरह
जुलाई में प्रधानमंत्री ने अपने महान सुधारों का हवाला देते हुए विदेशी कंपनियों को भारतीय कृषि क्षेत्र में आमंत्रित किया था.
यह भी ध्यान रखने की बात है कि नरेंद्र मोंदी 2014 में कह रहे थे कि दुनिया भर की कंपनियां भारत ले आएंगे और बहुत रोजगार पैदा होंगे. समृद्धि आएगी. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं.
फिलहाल बड़े प्लेयर्स को छोड़ दें तो लगभग उद्योग धंधे चौपट हो चुके हैं. बाजार में मांग घट गई है. इसलिए अभी ज्यादातर कंपनियां निवेश करने से रहीं.
लेकिन कृषि क्षेत्र अब भी फायदे में है. शायद सरकार सोच रही है कि इसके लिए कुछ कंपनियां आ सकती हैं. खाद्यान्न के बाजार में मंदी वैसे भी कम ही आती है, क्योंकि हर इंसान को खाना तो रोज खाना है.
खेती के निजीकरण का आइडिया उस स्थिति के लिए है कि ज्यादातर जनता की निर्भरता कृषि पर से हटाई जाए और उन्हें सेवा क्षेत्र में रोजगार दिया जाए. यह तब हो सकता है जब देश में पर्याप्त रोजगार हों.
यहां सेवा क्षेत्र मोदी जी पहले ही सपार चुके हैं. असंगठित क्षेत्र के उद्योगों का बंटाधार हो चुका है. कोरोना के पहले और बाद में मिलाकर ऐतिहासिक रूप से करोड़ों लोगों का रोजगार चला गया है.
गलत समय पर ये गलत फैसला लेते समय सरकार ये तक नहीं सोच पा रही है कि अगर निजी कंपनी किसान को उचित मूल्य नहीं देगी तो उसका क्या करना है?
किसानों से अदालत जाने तक का अधिकार छीना जा रहा है. इस सरकार ने निजीकरण सीखा है लेकिन रेग्युलशन नहीं सीखा जो निजीकरण की पूर्वशर्त है.
सबसे अहम बात है कि ये पूरी लड़ाई सरकार और उन 6 प्रतिशत बड़े किसानों के बीच की है जिनको समर्थन मूल्य का लाभ मिलता है. बाकी 94 प्रतिशत किसानों के बारे में सोचने के लिए सरग से नेहरू आएंगे?