भारतीय मीडिया इस समय आजादी की अलग ही लड़ाई लड़ रहा है. यह लड़ाई टुकड़ों में बंटे मीडिया समूहों की आजादी की है. यह लड़ाई पालों में बंटी मीडिया की खेमेबंदी से आजादी की है. यह लड़ाई सत्ता की कठपुतली की डोर से आजाद होने की कसमसाहट की है. यह लड़ाई अलग-अलग मुद्दों पर अलग-अलग स्टैंड से जूझकर बाहर निकलने की है. टुकड़ों में बंटा भारतीय मीडिया इस समय टुकड़ा-टुकड़ा आजादी का शिकार बन गया है. लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की इस निरीह स्थिति का लाभ अन्य स्तंभ पूरे मन से उठा रहे हैं.

स्वयं आजादी की लड़ाई लड़ रहे मीडिया ने राजनीति व अफसरशाही को अपने इस बंटवारे का पूरा लाभ उठाने की आजादी दे भी दी है. मुंबई में बुधवार की सुबह भारतीय मीडिया के एक चर्चित चेहरे अर्नब गोस्वामी को लाद कर ले जाती मुंबई पुलिस दरअसल एक अर्नब को नहीं ले जा रही थी, वह विभाजित भारतीय मीडिया को ढो रही थी. मुंबई पुलिस को पता था कि कुछ ही पलों बाद मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अर्नब के कर्मों का आंकलन कर तदनुरूप इस कार्रवाई में सीधे या परोक्ष रूप में उसके साथ खड़ा होगा, वहीं दूसरा हिस्सा उसका विरोध कर रहा होगा.

हुआ भी ऐसा ही. जैसे-जैसे सूरज चढ़ रहा था, भारतीय मीडिया व पत्रकारों का यह रूप सामने आता जा रहा था. जिस तरह से देश में राजनीतिक दल इस मसले पर बंटे नजर आ रहे थे, वैसे ही मीडिया भी अपने वैचारिक राजनीतिक अधिष्ठानों के साथ सुर-ताल मिलाकर टुकड़े-टुकड़े नजर आ रहा था. इन सबके बीच कुछ नाम थे, जो कल तक अर्नब की पूरी पत्रकारिता को खारिज करते थे, उऩ्होंने पुलिस के तरीके पर आपत्ति जरूर जताई थी. मुंबई पुलिस ने अर्नब के साथ जो किया, उसके बाद मीडिया की आजादी को लेकर भी चर्चा शुरू हो गयी है.

यह चर्चा उस समय शुरू हुई, जब आत्महत्या उत्प्रेरण के एक मामले में अर्नब को उठाया गया. सवाल ये है कि सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या मामले की गहन पड़ताल का मसला भी तो अर्नब ने पूरे मन से उठाया था. यदि सुशांत की आत्महत्या के जिम्मेदार लोगों को सजा मिलनी चाहिए, तो अर्नब को सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिए जिनके खिलाफ सुसाइड नोट मिला था. जब सत्ता के साथ समीकरण अच्छे थे, तब अर्नब को इस मामले में क्लीनचिट मिल चुकी थी. यही संकट भारतीय पत्रकारिता का मूल संकट है.

सत्ता के साथ समीकरण साध कर निहित स्वार्थों की पूर्ति करने वाली पत्रकारिता ने पत्रकारों को राजनीति व अधिकारियों की कठपुतली सा बना दिया है. सत्ता, राजनीति या प्रशासन के मजबूत लोग पत्रकारों के छोटे हित साधऩे के बाद उन्हें अपने बड़े हित में प्रयोग करते हैं. मीडिया के भीतर आगे बढ़ने की आपसी होड़ का लाभ भी नौकरशाही व राजनेता उठाते हैं. टुकड़ों में हुए इस बंटवारे के कारण ही मीडिया के भीतर सच कहने का साहस समाप्त सा हो गया है.

अर्नब के साथ सही-गलत की बात तो अलग है किन्तु अर्नब से पहले पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह देश भर में पत्रकारों पर हुकूमत ने जुल्म ढाए हैं, उन पर मिलकर आवाजें उठी ही नहीं हैं. सरकारों को सही या गलत ठहराने के लिए पत्रकार जिस तरह स्वयं को एक पक्ष का हिस्सा बना लेते हैं, उसका परिणाम है कि उनसे उनकी आजादी व सवाल पूछने की ताकत तक छिन जाती है. कुछ वर्ष पहले तक नेता परेशान रहते थे कि पत्रकार उनका साक्षात्कार करें, अब स्थितियां उल्टी हो चुकी हैं.

आए दिन नेताओं, अभिनेताओं आदि के साक्षात्कार लेने के बाद स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते पत्रकार सोशल मीडिया पर अपडेट करते दिख जाएंगे. अमेरिका जैसे देश में राष्ट्रपति ट्रंप के झूठ ट्रैक किये जाते हैं, पत्रकार खुल कर उनसे सवाल पूछने का साहस करते हैं कि कितना झूठ और बोलोगे. इसके विपरीत भारत में ऐसा साहस करने वाले पत्रकार कितने हैं? अब तो राजनीतिक शिखर पुरुष प्रेस कांफ्रेंस ही नहीं करते और जब अपनी जरूरत के अनुरूप साक्षात्कार देते हैं, तो पत्रकार व उनके मीडिया समूह गौरवान्वित हो उस साक्षात्कार की मार्केटिंग करने में व्यस्त हो जाते हैं.

इन्हीं स्थितियों ने भारत में मीडिया की आजादी के मापदंड को बहुत नीचे गिरा दिया है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी मीडिया की स्वतंत्रता के सूचकांक (प्रेस फ्रीडम इनडेक्स) में भारत 180 देशों की सूची में 142वें स्थान पर है. प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में हम अपने पड़ोसियों से भी पीछए हैं. भूटान जैसा देश इस सूची में 67वें स्थान पर है, तो नेपाल 112लें स्थान पर है. श्रीलंका 127वें स्थान पर रहकर हमसे अच्छी स्थिति में है ही, वहीं युद्धग्रस्त अफगानिस्तान के पत्रकार भी भारतीय पत्रकारों से अधिक आजाद हैं.

इस सूची में अफगानिस्तान 122वें स्थान पर है. भारतीय मीडिया की यह छीछालेदर अभी ऐसे ही जारी रहेगी. जबतक हम अपराधी पत्रकारों के साथ खड़े होने में हिचकेंगे नहीं और पत्रकारिता करते हुए सताए गए पत्रकारों के लिए सत्ता के डर से बोलने में हिचकेंगे. यह स्थिति समाप्त होनी चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष व स्वतंत्र पत्रकारिता सर्वाधिक आवश्यक अवयव है. ऐसा न हुआ तो लोकतंत्र खतरे में पड़ेगा और तानाशाही बढ़ेगी. फिर सिर्फ मीडिया की आजादी ही नहीं देश की आजादी खतरे में आ जाएगी. सावधानी जरूरी है.